सत्तरकटैया प्रखंड के दोरमा गांव में स्थित प्राचीन काले पत्थर से निर्मित मां दुर्गा भगवती की प्रतिमा आज पूरे जिले में आस्था का केंद्र बन चुकी है। खासकर दुर्गा पूजा के पावन अवसर पर यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। माता के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं और संध्या काल में देवी भागवत व कीर्तन आयोजन के साथ भोग अर्पण किया जाता है।
स्थापना की अनोखी कथा
दोरमा भगवती स्थान के मुख्य पुजारी पंडित अशोक झा बताते हैं कि लगभग वर्ष 1930 के आसपास ग्रामीण पंडित स्व. सोनेलाल झा को स्वप्न में देवी ने दर्शन दिए। इसके बाद औकाही डीह पर खुदाई के दौरान मां भगवती की यह दुर्लभ प्रतिमा प्रकट हुई। मान्यता है कि लगातार खुदाई के दौरान ग्रामीणों द्वारा छाग-पारा के बलिदान की मिन्नत की गई, तभी यह प्रतिमा प्रकट हुई। उसके बाद ग्रामीणों ने प्रतिमा को गांव में स्थापित कर पूजा-अर्चना शुरू की, जो आज तक निरंतर चल रही है।
दुर्गा पूजा पर विशेष आयोजन
हर साल आश्विन मास में यहां दस दिनों तक दुर्गा पूजा का आयोजन धूमधाम से होता है। सप्तमी और अष्टमी पर भव्य मेले का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के क्षेत्र से हजारों श्रद्धालु जुटते हैं।
विशेष परंपराएं
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मुंगेर घाट से जल भरने की परंपरा: दुर्गा पूजा शुरू होने से पहले सैकड़ों ग्रामीण पैदल और बाइक से मुंगेर घाट जाकर जल लाते हैं और फिर उसी से कलश स्थापना की जाती है।
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छाग व पारा का बलिदान: मान्यता है कि यहां मनौती पूरी होने पर श्रद्धालु अष्टमी के दिन खुशी-खुशी छाग और पारा का बलिदान देते हैं।
दोरमा गांव का यह भगवती स्थान न सिर्फ धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि लोक परंपराओं और अद्भुत मान्यताओं का भी जीवंत प्रतीक है। दुर्गा पूजा के मौके पर यहां की श्रद्धा, विश्वास और परंपराएं पूरे इलाके को आस्था से सराबोर कर देती हैं।
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